||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १८ ||
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय अठरावा ||
मोक्षसंन्यासयोगः |
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय अठरावा ||
मोक्षसंन्यासयोगः |
जयजय देव निर्मळ| निजजनाखिलमंगळ| जन्मजराजलदजाळ| प्रभंजन ||१||
जयजय देव प्रबळ| विदळितामंगळकुळ| निगमागमद्रुमफळ| फलप्रद ||२||
जयजय देव सकल| विगतविषयवत्सल| कलितकाळकौतूहल| कलातीत ||३||
जयजय देव निश्चळ| चलितचित्तपानतुंदिल| जगदुन्मीलनाविरल| केलिप्रिय ||४||
जयजय देव निष्कळ| स्फुरदमंदानंदबहळ| नित्यनिरस्ताखिलमळ| मूळभूत ||५||
जयजय देव स्वप्रभ| जगदंबुदगर्भनभ| भुवनोद्भवारंभस्तंभ| भवध्वंस ||६||
जयजय देव विशुद्ध| विदुदयोद्यानद्विरद| शमदम- मदनमदभेद| दयार्णव ||७||
जयजय देवैकरूप| अतिकृतकंदर्पसर्पदर्प| भक्तभावभुवनदीप| तापापह ||८||
जयजय देव अद्वितीय| परीणतोपरमैकप्रिय| निजजनजित भजनीय| मायागम्य ||९||
जयजय देव श्रीगुरो| अकल्पनाख्यकल्पतरो| स्वसंविद्रुमबीजप्ररो| हणावनी ||१०||
हे काय एकैक ऐसैसें| नानापरीभाषावशें| स्तोत्र करूं तुजोद्देशें| निर्विशेषा ||११||
जिहींं विशेषणीं विशेषिजे| तें दृश्य नव्हे रूप तुझें| हें जाणें मी म्हणौनि लाजें| वानणा इहीं ||१२||
परी मर्यादेचा सागरु| हा तंवचि तया डगरु| जंव न देखे सुधाकरु| उदया आला ||१३||
सोमकांतु निजनिर्झरींं| चंद्रा अर्घ्यादिक न करी| तें तोचि अवधारीं| करवी कीं जी ||१४||
नेणों कैसी वसंतसंगें| अवचितिया वृक्षाचीं अंगें| फुटती तैं हे तयांहि जोगें| धरणें नोहे ? ||१५||
पद्मिनी रविकिरण| लाहे मग लाजें कवण ? | | कां जळें शिवतलें लवण| आंग भुले ||१६||
तैसा तूतें जेथ मी स्मरें| तेथ मीपण मी विसरें| मग जाकळिला ढेंकरें| तृप्तु जैसा ||१७||
मज तुवां जी केलें तैसें| माझें मीपण दवडूनि देशें| स्तुतिमिषेंच पां पिसें| बांधलें वाचे ||१८||
ना येऱ्हवींं तरी आठवीं| राहोनि स्तुति जैं करावी| तैं गुणागुणिया धरावी| सरोभरी कींंं ||१९||
तरी तूं जी एकरसाचें लिंग| केवीं करूं गुणागुणीं विभाग| मोतीं फोडोनि सांधितां चांग| कीं तैसेंचि भलें ||२०||
आणि बाप तूं माय| इहीं बोलीं ना स्तुति होय| डिंभोपाधिक आहे| विटाळु तेथें ||२१||
जी जालेनि पाइकें आलें| तें गोसावीपण केवीं बोलें ? | ऐसें उपाधी उशिटलें| काय वर्णूं ||२२||
जरी आत्मा तूं एकसरा| हेंही म्हणतां दातारा| तरी आंतुल तूं बाहेरा| घापतासी ||२३||
म्हणौनि सत्यचि तुजलागींं| स्तुति न देखों जी जगीं| मौनावांचूनि लेणें आंगीं| सुसीना मा ||२४||
स्तुति कांहीं न बोलणें| पूजा कांहींं न करणें| सन्निधी कांहींंं न होणें| तुझ्या ठायीं ||२५||
तरी जिंतलें जैसें भुली| पिसें आलापु घाली| तैसें वानूं तें माऊली| उपसाहावें तुवां ||२६||
आतां गीतार्थाची मुक्तमुदी| लावीं माझिये वाग्वृद्धी| जे माने हे सभासदीं | सज्जनांच्या ||२७||
तेथ म्हणितलें श्रीनिवृत्ती| नको हें पुढतपुढती| परीसीं लोहा घृष्टी किती| वेळवेळां कीजे गा ||२८||
तंव विनवी ज्ञानदेवो| म्हणे हो कां जी पसावो| तरी अवधान देतु देवो| ग्रंथा आतां ||२९||
जी गीतारत्नप्रासादाचा| कळसु अर्थचिंतामणीचा| सर्व गीतादर्शनाचा| पाढ्ॐ जो ||३०||
लोकीं तरी आथी ऐसें| जे दुरूनि कळसु दिसे| आणी भेटीचि हातवसे| देवतेची तिये ||३१||
तैसेंचि एथही आहे| जे एकेचि येणें अध्यायें| आघवाचि दृष्ट होये| गीतागमु हा ||३२||
मी कळसु याचि कारणें| अठरावा अध्यायो म्हणें| उवाइला बादरायणें| गीताप्रासादा ||३३||
नोहे कळसापरतें कांहीं| प्रासादीं काम नाहीं| तें सांगतसे गीता ही| संपलेपणें ||३४||
व्यासु सहजें सूत्री बळी| तेणें निगमरत्नाचळीं| उपनिषदार्थाची माळी- | माजीं खांडिली ||३५||
तेथ त्रिवर्गाचा अणुआरु| आडऊ निघाला जो अपारु| तो महाभारतप्राकारु| भोंवता केला ||३६||
माजीं आत्मज्ञानाचें एकवट| दळवाडें झाडूनि चोखट| घडिलें पार्थवैकुंठ- | संवाद कुसरी ||३७||
निवृत्तिसूत्र सोडवणिया| सर्व शास्त्रार्थ पुरवणिया| आवो साधिला मांडणिया| मोक्षरेखेचा ||३८||
ऐसेनि करितां उभारा| पंधरा अध्यायांत पंधरा| भूमि निर्वाळलिया पुरा| प्रासादु जाहला ||३९||
उपरी सोळावा अध्यायो| तो ग्रीवघंटेचा आवो| सप्तदशु तोचि ठावो| पडघाणिये ||४०||
तयाहीवरी अष्टादशु| तो अपैसा मांडला कळसु| उपरि गीतादिकीं व्यासु| ध्वजें लागला ||४१||
म्हणौनि मागील जे अध्याये| ते चढते भूमीचे आये| तयांचें पुरें दाविताहे| आपुल्या आंगीं ||४२||
जालया कामा नाहीं चोरी| ते कळसें होय उजरी| तेवींं अष्टादशु विवरी| साद्यंत गीता ||४३||
ऐसा व्यासें विंदाणियें| गीताप्रासादु सोडवणिये| आणूनि राखिले प्राणिये| नानापरी ||४४||
एक प्रदक्षिणा जपाचिया| बाहेरोनि करिती यया| एक ते श्रवणमिषें छाया| सेविती ययाची ||४५||
एक ते अवधानाचा पुरा| विडापाऊड भीतरां| घेऊनि रिघती गाभारां| अर्थज्ञानाच्या ||४६||
ते निजबोधें उराउरी| भेटती आत्मया श्रीहरी| परी मोक्षप्रासादीं सरी| सर्वांही आथी ||४७||
समर्थाचिये पंक्तिभोजनें| तळिल्या वरील्या एकचि पक्वान्नें| तेवीं श्रवणें अर्थें पठणें| मोक्षुचि लाभे ||४८||
ऐसा गीता वैष्णवप्रासादु| अठरावा अध्याय कळसु विशदु| म्यां म्हणितला हा भेदु| जाणोनियां ||४९||
आतां सप्तदशापाठीं | अध्याय कैसेनि उठी| तो संबंधु सांगो दिठी| दिसे तैसा ||५०||
का गंगायमुना उदक| वोघबगें वेगळिक| दावी होऊनि एक| पाणीपणें ||५१||
न मोडितां दोन्ही आकार| घडिलें एक शरीर| हें अर्धनारी नटेश्वर- | रूपीं दिसें ||५२||
नाना वाढिली दिवसें| कळा बिंबीं पैसे| परी सिनानें लेवे जैसें| चंद्रीं नाहीं ||५३||
तैसींं सिनानीं चारीं पदें| श्लोक तो श्लोकावच्छेदें| अध्यावो अध्यायभेदें| गमे कीर ||५४||
परी प्रमेयाची उजरी| आनान रूप न धरी| नाना रत्नमणीं दोरी| एकचि जैसी ||५५||
मोतियें मिळोनि बहुवें| एकावळीचा पाडु आहे| परी शोभे रूप होये| एकचि तेथ ||५६||
फुलांफुलसरां लेख चढे| द्रुतीं दुजी अंगुळी न पडे| श्लोक अध्याय तेणें पाडें| जाणावे हे ||५७||
सात शतें श्लोक| अध्यायां अठरांचे लेख| परी देवो बोलिले एक| जें दुजें नाहीं ||५८||
आणि म्यांही न सांडूनि ते सोये| ग्रंथ व्यक्ति केली आहे| प्रस्तुत तेणें निर्वाहे| निरूपण आइका ||५९||
तरी सतरावा अध्यावो| पावतां पुरता ठावो| जें संपतां श्लोकीं देवो| बोलिले ऐसें ||६०||
अर्जुना ब्रह्मनामाच्याविखीं. बुद्धि सांडूनि आस्तिकीं| कर्मे कीजती तितुकींंंं| असंतें होतीं ||६१||
हा ऐकोनि देवाचा बोलु| अर्जुना आला डोलु| म्हणे कर्मनिष्ठां मळु| ठेविला देखों ||६२||
तो अज्ञानांधु तंव बापुडा| ईश्वरुचि न देखे एवढा| तेथ नामचि एक पुढां| कां सुझे तया ||६३||
आणि रजतमें दोन्हीं| गेलियावीण श्रद्धा सानी| ते कां लागे अभिधानीं| ब्रह्माचिये ? ||६४||
मग कोता खेंव देणें| वार्तेवरील धावणें| सांडी पडे खेळणें| नागिणीचें तें ||६५||
तैसीं कर्में दुवाडें| तयां जन्मांतराची कडे| दुर्मेळावे येवढे| कर्मामाजीं ||६६||
ना विपायें हें उजू होये| तरी ज्ञानाची योग्यता लाहे| येऱ्हवीं येणेंचि जाये| निरयालया ||६७||
कर्मीं हा ठायवरी| आहाती बहुवा अवसरी| आतां कर्मठां कैं वारी| मोक्षाची हे ||६८||
तरी फिटो कर्माचा पांगु| कीजो अवघाचि त्यागु| आदरिजो अव्यंगु| संन्यासु हा ||६९||
कर्मबाधेची कहीं| जेथ भयाची गोठी नाहीं| तें आत्मज्ञान जिहीं| स्वाधीन होय ||७०||
ज्ञानाचें आवाहनमंत्र| जें ज्ञान पिकतें सुक्षेत्र| ज्ञान आकर्षितें सूत्र| तंतु जे का ||७१||
ते दोनी संन्यास त्याग| अनुष्ठूनि सुटे जग| तरी हेंचि आतां चांग| व्यक्त पुसों ||७२||
ऐसें म्हणौनि पार्थें| त्यागसंन्यासव्यवस्थे| रूप होआवया जेथें| प्रश्नु केला ||७३||
तेथ प्रत्युत्तरें बोली| श्रीकृष्णें जे चावळिली| तया व्यक्ति जाली| अष्टादशा ||७४||
एवं जन्यजनकभावें| अध्यावो अध्यायातें प्रसवे| आतां ऐका बरवें| पुसिलें जें ||७५||
तरी पंडुकुमरें तेणें| देवाचें सरतें बोलणें| जाणोनि अंतःकरणें| काणी घेतली ||७६||
येऱ्हवीं तत्वविषयीं भला| तो निश्चितु असे कीर जाहला| परी देवो राहे उगला| तें साहावेना ||७७||
वत्स धालयाही वरी| धेनू न वचावी दुरी| अनन्य प्रीतीची परी| ऐसी आहे ||७८||
तेणें काजेवीणही बोलावें| तें देखीलें तरी पाहावें| भोगितां चाड दुणावे| पढियंतयाठायीं ||७९||
ऐसी प्रेमाची हे जाती| आणि पार्थ तंव तेचि मूर्ती| म्हणौनि करूं लाहे खंती| उगेपणाची ||८०||
आणि संवादाचेनि मिषें| जे अव्यवहारी वस्तु असे | ते भोगिजे कीं जैसें| आरिसां रूप ||८१||
मग संवादु तोही पारुखे| तरी भोगितां भोगणें थोके| हें कां साहवेल सुखें| लांचावलेया ? ||८२||
यालागीं त्याग संन्यास| पुसावयाचें घेऊनि मिस| मग उपलविलें दुस| गीतेंचें तें ||८३||
अठरावा अध्यावो नोहे| हे एकाध्यायी गीताचि आहे| जैं वांसरुचि गाय दुहे | तैं वेळु कायसा ||८४||
तैसी संपतां अवसरीं| गीता आदरविली माघारीं| स्वामी भृत्याचा न करी| संवादु काई ? ||८५||
परी हें असो ऐसें| अर्जुनें पुसिजत असे | म्हणे विनंती विश्वेशें| अवधारिजो ||८६||
अर्जुन उवाच |
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ||१||
हां जी संन्यासु आणि त्यागु| इयां दोहीं एक अर्थीं लागु| जैसा सांघातु आणि संघु| संघातेंचि बोलिजे ||८७||
तैसेंचि त्यागें आणि संन्यासें| त्यागुचि बोलिजतु असे| | आमचेनि तंव मानसें| जाणिजे हेंचि ||८८||
ना कांहीं आथी अर्थभेदु| तो देवो करोतु विशदु| तेथ म्हणती श्रीमुकुंदु| भिन्नचि पैं ||८९||
तरी अर्जुना तुझ्या मनीं| त्याग संन्यास दोनी| एकार्थ गमलें हें मानीं| मीही साच ||९०||
इहीं दोहीं कीर शब्दीं| त्यागुचि बोलिजे त्रिशुद्धी| परी कारण एथ भेदीं| येतुलेंचि ||९१||
जें निपटूनि कर्म सांडिजे| तें सांडणें संन्यासु म्हणिजे| आणि फलमात्र का त्यजिजे| तो त्यागु गा ||९२||
तरी कोणा कर्माचें फळ| सांडिजे कोण कर्म केवळ| हेंही सांगों विवळ| चित्त दे पां ||९३||
तरी आपैसीं दांगें डोंगर| झाडें डाळती अपार| तैसें लांबे राजागर| नुठिती ते ||९४||
न पेरितां सैंघ तृणें| उठती तैसें साळीचें होणें| नाहीं गा राबाउणें| जियापरी ||९५||
कां अंग जाहलें सहजें| परी लेणें उद्यमें कीजे| नदी आपैसी आपादिजे| विहिरी जेवीं ||९६||
तैसें नित्य नैमित्तिक| कर्म होय स्वाभाविक| परी न कामितां कामिक| न निफजे जें ||९७||
श्रीभगवानुवाच |
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||२||
कां कामनेचेनि दळवाडें| जें उभारावया घडे| अश्वमेधादिक फुडे| याग जेथ ||९८||
वापी कूप आराम| अग्रहारें हन महाग्राम| आणीकही नाना संभ्रम| व्रतांचे ते ||९९||
ऐसें इष्टापूर्त सकळ| जया कामना एक मूळ| जें केलें भोगवी फळ| बांधोनियां ||१००||
देहाचिया गांवा अलिया| जन्ममृत्यूचिया सोहळिया| ना म्हणों नये धनंजया| जियापरी ||१०१||
का ललाटींचें लिहिलें| न मोडे गा कांहीं केलें| काळेगोरेपण धुतलें| फिटों नेणे ||१०२||
केलें काम्य कर्म तैसें| फळ भोगावया धरणें बैसे| न फेडितां ऋण जैसें| वोसंडीना ||१०३||
कां कामनाही न करितां| अवसांत घडे पंडुसुता| तरी वायकांडें न झुंजतां| लागे जैसें ||१०४||
गूळ नेणतां तोंडीं| घातला देचि गोडी| आगी मानूनि राखोंडी| चेपिला पोळी ||१०५||
काम्यकर्मी हें एक| सामर्थ्य आथी स्वाभाविक| म्हणौनि नको कौतुक| मुमुक्षु एथ ||१०६||
किंबहुना पार्था ऐसें| जें काम्य कर्म गा असे | तें त्यजिजे विष जैसें| वोकूनियां ||१०७||
मग तया त्यागातें जगीं| संन्यासु ऐसया भंगीं| बोलिजे अंतरंगीं| सर्वद्रष्टा ||१०८||
हें काम्य कर्म सांडणें| तें कामनेतेंचि उपडणें| द्रव्यत्यागें दवडणें| भय जैसें ||१०९||
आणि सोमसूर्यग्रहणें| येऊनि करविती पार्वणें| का मातापितरमरणें| अंकित जे दिवस ||११०||
अथवा अतिथी हन पावे| हें ऐसैसें पडे जैं करावें| तैं तें कर्म जाणावें| नौमित्तिक गा ||१११||
वार्षिया क्षोमे गगन| वसंतें दुणावे वन| देहा श्रृंगारी यौवन- | दशा जैसी ||११२||
का सोमकांतु सोमें पघळें | सूर्यें फांकती कमळें| एथ असे तेंचि पाल्हाळे | आन नये ||११३||
तैसें नित्य जें का कर्म| तेंचि निमित्ताचे लाहे नियम| एथ उंचावे तेणें नाम| नैमित्तिक होय ||११४||
आणि सायंप्रातर्मध्यान्हीं| जें कां करणीय प्रतिदिनीं| परी दृष्टि जैसी लोचनीं| अधिक नोहे ||११५||
कां नापादितां गती| चरणीं जैसी आथी| नातरी ते दीप्ती| दीपबिंबीं ||११६||
वासु नेदितां जैसे| चंदनीं सौरभ्य असे | अधिकाराचे तैसें| रूपचि जें ||११७||
नित्य कर्म ऐसें जनीं| पार्था बोलिजे तें मानीं| एवं नित्य नैमित्तिक दोन्हीं| दाविलीं तुज ||११८||
हेंचि नित्य नैमित्तिक| अनुष्ठेय आवश्यक| म्हणौनि म्हणोंं पाहती एक| वांझ ययातें ||११९||
परी भोजनीं जैसें होये| तृप्ति लाहे भूक जाये| तैसे नित्यनैमित्तिकीं आहे| सर्वांगीं फळ ||१२०||
कीड आगिठां पडे| तरी मळु तुटे वानी चढे| यया कर्मा तया सांगडें| फळ जाणावें ||१२१||
जे प्रत्यवाय तंव गळे| स्वाधिकार बहुवें उजळे| तेथ हातोफळिया मिळे| सद्गतीसी ||१२२||
येवढेवरी ढिसाळ| नित्यनैमित्तिकीं आहे फळ| परी तें त्यजिजे मूळ| नक्षत्रीं जैसें ||१२३||
लता पिके आघवी| तंव च्यूत बांधे पालवीं| मग हात न लावित माधवीं| सोडूनि घाली ||१२४||
तैसी नोलांडितां कर्मरेखा| चित्त दीजे नित्यनैमित्तिका| पाठीं फळा कीजे अशेखा| वांताचे वानी ||१२५||
यया कर्म फळत्यागातें| त्यागु म्हणती पैं जाणते| एवं त्याग संन्यास तूतें| परीसविले ||१२६||
हा संन्यासु जैं संभवे| तैं काम्य बाधूं न पावे| निषिद्ध तंव स्वभावें| निषेधें गेलें ||१२७||
आणि नित्यादिक जें असे | तें येणें फलत्यागें नसे| शिर लोटलिया जैसें| येर आंग ||१२८||
मग सस्य फळपाकांत| तैसें निमालिया कर्मजात| आत्मज्ञान गिंवसीत| अपैसें ये ||१२९||
ऐसिया निगुती दोनी| त्याग संन्यास अनुष्ठानीं| पडले गा आत्मज्ञानीं | बांधती पाटु ||१३०||
नातरी हे निगुती चुके| मग त्यागु कीजे हाततुकें| तैं कांहीं न त्यजे अधिकें| गोंवींचि पडे ||१३१||
जें औषध व्याधी अनोळख| तें घेतलिया परतें विख| कां अन्न न मानितां भूक| मारी ना काय ? ||१३२||
म्हणौनि त्याज्य जें नोहे| तेथ त्यागातें न सुवावें| त्याज्यालागीं नोहावें| लोभापर ||१३३||
चुकलिया त्यागाचें वेझें| केला सर्वत्यागुही होय वोझें| न देखती सर्वत्र दुजें| वीतराग ते ||१३४||
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ||३||
एकां फळाभिलाष न ठके| ते कर्मांते म्हणती बंधकें| जैसें आपण नग्न भांडकें| जगातें म्हणे ||१३५||
कां जिव्हालंपट रोगिया| अन्नें दूषी धनंजया| आंगा न रुसे कोढिया| मासियां कोपे ||१३६||
तैसे फळकाम दुर्बळ| म्हणती कर्मचि किडाळ| मग निर्णयो देती केवळ| त्यजावें ऐसा ||१३७||
एक म्हणती यागादिक| करावेंचि आवश्यक| जे यावांचूनि शोधक| आन नसे ||१३८||
मनशुद्धीच्या मार्गीं| जैं विजयी व्हावें वेगीं| तैं कर्म सबळालागीं | आळसु न कीजे ||१३९||
भांगार आथी शोधावें| तरी आगी जेवी नुबगावें| कां दर्पणालागीं सांचावें| अधिक रज ||१४०||
नाना वस्त्रें चोख होआवीं| ऐसें आथी जरी जीवीं| तरी संवदणी न मनावी| मलिन जैसी ||१४१||
तैसीं कर्में क्लेशकारें| म्हणौनि न न्यावीं अव्हेरें| कां अन्नलाभें अरुवारें| रांधितिये उणें ||१४२||
इहीं इहीं गा शब्दीं| एक कर्मीं बांधिती बुद्धी| ऐसा त्यागु विसंवादीं| पडोनि ठेला ||१४३||
तरी विसंवादु तो फिटे| त्यागाचा निश्चयो भेटे| तैसें बोलों गोमटें| अवधान देईं ||१४४||
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम |
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ||४||
तरी त्यागु एथें पांडवा| त्रिविधु पैं जाणावा| तया त्रिविधाही बरवा| विभाग करूं ||१४५||
त्यागाचे तीन्ही प्रकार| कीजती जरी गोचर| तरी तूं इत्यर्थाचें सार| इतुलें जाण ||१४६||
मज सर्वज्ञाचिये बुद्धी| जें अलोट माने त्रिशुद्धी| निश्चयतत्व तें आधीं| अवधारीं पां ||१४७||
तरी आपुलिये सोडवणें| जो मुमुक्षु जागों म्हणे| तया सर्वस्वें करणें| हेंचि एक ||१४८||
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ||५||
जियें यज्ञदानतपादिकें| इयें कर्में आवश्यकें| तियें न सांडावीं पांथिकें| पाउलें जैसीं ||१४९||
हारपलें न देखिजे| तंव तयाचा मागु न सांडिजे| कां तृप्त न होतां न लोटिजे| भाणें जेवीं ||१५०||
नाव थडी न पवतां| न खांडिजे केळी न फळतां| कां ठेविलें न दिसतां| दीपु जैसा ||१५१||
तैसी आत्मज्ञानविखीं| जंव निश्चिती नाहीं निकी| तंव नोहावें यागादिकीं| उदासीन ||१५२||
तरी स्वाधिकारानुरुपें| तियें यज्ञदानें तपें| अनुष्ठावींचि साक्षेपें| अधिकेंवर ||१५३||
जें चालणें वेगावत जाये| तो वेगु बैसावयाचि होये| तैसा कर्मातिशयो आहे| नैष्कर्म्यालागीं ||१५४||
अधिकें जंव जंव औषधी| सेवनेची मांडी बांधी| तंव तंव मुकिजे व्याधी| तयाचिये ||१५५||
तैसीं कर्में हातोपातीं| जैं कीजती यथानिगुती| तैं रजतमें झडती| झाडा देऊनी ||१५६||
कां पाठोवाटीं पुटें| भांगारा खारु देणें घटे| तैं कीड झडकरी तुटे| निर्व्याजु होय ||१५७||
तैसें निष्ठा केलें कर्म| तें झाडी करूनि रजतम| सत्वशुद्धीचें धाम| डोळां दावी ||१५८||
म्हणौनियां धनंजया| सत्वशुद्धी गिंवसितया| तीर्थांचिया सावाया| आलीं कर्में ||१५९||
तीर्थें बाह्यमळु क्षाळे| कर्में अभ्यंतर उजळे| एवं तीर्थें जाण निर्मळें| सत्कर्मेॅहि ||१६०||
तृषार्ता मरुदेशीं| झळे अमृतें वोळलीं जैसींं| कीं अंधालागीं डोळ्यांसी| सूर्यु आला ||१६१||
बुडतया नदीच धाविन्नली| पडतया पृथ्वीच कळवळिली| निमतया मृत्यूनें दिधली| आयुष्यवृद्धी ||१६२||
तैसें कर्में कर्मबद्धता| मुमुक्षु सोडविले पंडुसुता| जैसा रसरीति मरतां| राखिला विषें ||१६३||
तैसीं एके हातवटिया| कर्में कीजती धनंजया| बंधकेंचि सोडवावया| मुख्यें होती ||१६४||
आतां तेचि हातवटी| तुज सांगों गोमटी| जया कर्मातें किरीटी| कर्मचि रुसे ||१६५||
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||६||
तरी महायागप्रमुखें| कर्मे निफजतांही अचुकें| कर्तेपणाचें न ठाके| फुंजणें आंगीं ||१६६||
जो मोलें तीर्था जाये| तया मी यात्रा करितु आहे| ऐसिये श्लाघ्यतेचा नोहे| तोषु जेवीं ||१६७||
कां मुद्रा समर्थाचिया| जो एकवटु झोंबे राया| तो मी जिणता ऐसिया| न येचि गर्वा ||१६८||
जो कासें लागोनि तरे| तया पोहती ऊर्मी नुरे| पुरोहितु नाविष्करे| दातेपणें ||१६९||
तैसें कर्तृत्व अहंकारें| नेघोनि यथा अवसरें| कृत्यजातांचें मोहरें| सारीजती ||१७०||
केल्या कर्मा पांडवा| जो आथी फळाचा यावा| तया मोहरा हों नेदावा| मनोरथु ||१७१||
आधींचि फळीं आस तुटिया| कर्मे आरंभावीं धनंजया| परावें बाळ धाया| पाहिजे जैसें ||१७२||
पिंपरुवांचिया आशा| न शिंपिजे पिंपळु जैसा| तैसिया फळनिराशा| कीजती कर्में ||१७३||
सांडूनि दुधाची टकळी| गोंवारी गांवधेनु वेंटाळी| किंबहुना कर्मफळीं| तैसें कीजे ||१७४||
ऐसी हे हातवटी| घेऊनि जे क्रिया उठी| आपणा आपुलिया गांठी| लाहेची तो ||१७५||
म्हणौनि फळीं लागु| सांडोनि देहसंगु| कर्में करावीं हा चांगु| निरोपु माझा ||१७६||
जो जीवबंधेएं शिणला| सुटके जाचे आपला| तेणें पुढतपुढतीं या बोला| आन न कीजे ||१७७||
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते |
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ||७||
नातरी आंधाराचेनि रोखें| जैसीं डोळां रोंविजती नखें| तैसा कर्मद्वेषें अशेखें| कर्मेंचि सांडी ||१७८||
तयाचें जें कर्म सांडणें| तें तामस पैं मी म्हणें| शिसाराचे रागें लोटणें| शिरचि जैसें ||१७९||
हां गा मार्गु दुवाडु होये| तरी निस्तरितील पाये| कीं तेचि खांडणें आहे| मार्गापराधें ||१८०||
भुकेलियापुढें अन्न| हो कां भलतैसें उन्ह| तरी बुद्धी न घेतां लंघन| भाणें पापरां हल्या ||१८१||
तैसा कर्माचा बाधु कर्में| निस्तरीजे करितेनि वर्में| हे तामसु नेणें भ्रमें| माजविला ||१८२||
कीं स्वभावें आलें विभागा| तें कर्मचि वोसंडी पैं गा| तरी झणें आतळा त्यागा| तामसा तया ||१८३||
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||८||
अथवा स्वाधिकारु बुझे| आपले विहितही सुजे| परी करितया उमजे| निबरपणा ||१८४||
जे कर्माची ऐलीकड| नावेक दिसे दुवाड| जे वाहतिये वेळे जड| शिदोरी जैसी ||१८५||
जैसा निंब जिभे कडवटु| हिरडा पहिलें तुरटु| तैसा कर्मा ऐल शेवटु| खणुवाळा होय ||१८६||
कां धेनु दुवाड शिंग| शेवंतीये अडव आंग| भोजनसुख महाग| पाकु करितां ||१८७||
तैसें पुढतपुढती कर्म | आरंभींच अति विषम| म्हणौनि तो तें श्रम| करितां मानी ||१८८||
येऱ्हवीं विहितत्वें मांडी| परी घालितां असुरवाडीं| तेथ पोळला ऐसा सांडी| आदरिलेंही ||१८९||
म्हणे वस्तु देहासारिखी| आली बहुतीं भाग्यविशेखीं| मा जाचूं कां कर्मादिकीं| पापिया जैसा ? ||१९०||
केलें कर्मीं जे द्यावें| तें झणें मज होआवें| आजि भोगूं ना कां बरवे| हातींचे भोग ? ||१९१||
ऐसा शरीराचिया क्लेशा| भेणें कर्में वीरेशा| सांडी तो परीयेसा| राजसु त्यागु ||१९२||
येऱ्हवीं तेथही कर्म सांडे| परी तया त्यागफळ न जोडे| जैसें उतलें आगीं पडे| तें नलगेचि होमा ||१९३||
कां बुडोनि प्राण गेले| ते अर्धोदकीं निमाले| हें म्हणों नये जाहलें| दुर्मरणचि ||१९४||
तैसें देहाचेनि लोभें| जेणें कर्मा पाणी सुभे| तेणें साच न लभे| त्यागाचें फळ ||१९५||
किंबहुना आपुलें| जैं ज्ञान होय उदया आलें| तैं नक्षत्रातें पाहलें| गिळी जैसें ||१९६||
तैशा सकारण क्रिया| हारपती धनंजया| तो कर्मत्यागु ये जया| मोक्षफळासी ||१९७||
तें मोक्षफळ अज्ञाना| त्यागिया नाहीं अर्जुना| म्हणौनि तो त्यागु न माना| राजसु जो ||१९८||
तरी कोणे पां एथ त्यागें| तें मोक्षफळ घर रिघे| हेंही आइक प्रसंगे| बोलिजेल ||१९९||
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन |
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||९||
तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें| जें वांटिया आलें स्वभावें| तें आचरे विधिगौरवें| शृंगारोनि ||२००||
परी हें मी करितु असें| ऐसा आठवु त्यजी मानसें| तैसेचि पाणी दे आशे| फळाचिये ||२०१||
पैं अवज्ञा आणि कामना| मातेच्या ठायीं अर्जुना| केलिया दोनी पतना| कारण होती ||२०२||
तरी दोनीं यें त्यजावीं| मग माताची ते भजावी| वांचूनि मुखालागीं वाळावी| गायचि सगळी ? ||२०३||
आवडतियेही फळीं| असारें साली आंठोळीं| त्यासाठीं अवगळी| फळातें कोण्ही ? ||२०४||
तैसा कर्तृत्वाचा मदु| आणि कर्मफळाचा आस्वादु| या दोहींचें नांव बंधु| कर्माचा कीं ||२०५||
तरी या दोहींच्या विखीं| जैसा बापु नातळे लेंकीं | तैसा हों न शके दुःखी| विहिता क्रिया ||२०६||
हा तो त्याग तरुवरु| जो गा मोक्षफळें ये थोरु| सात्विक ऐसा डगरु| यासींच जगीं ||२०७||
आतां जाळूनि बीज जैसें| झाडा कीजे निर्वंशें| फळ त्यागूनि कर्म तैसें| त्यजिलें जेणें ||२०८||
लोह लागतखेंवो परीसीं| धातूची गंधिकाळिमा जैसी| जाती रजतमें तैसीं| तुटलीं दोन्ही ||२०९||
मग सत्वें चोखाळें| उघडती आत्मबोधाचे डोळे| तेथ मृगांबु सांजवेळे| होय जैसें ||२१०||
तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां| असतु विश्वाभासु हा येवढा| तो न देखे कवणीकडां| आकाश जैसें ||२११||
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते |
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ||१०||
म्हणौनि प्राचिनाचेनि बळें| अलंकृतें कुशलाकुशलें| तियें व्योमाआंगीं आभाळें| जिरालीं जैसीं ||२१२||
तैसीं तयाचिये दिठी| कर्में चोखाळलीं किरीटी. म्हणौनि सुखदुःखीं उठी| पडेना तो ||२१३||
तेणें शुभकर्म जाणावें| मग तें हर्षें करावें| कां अशुभालागीं होआवें| द्वेषिया ना ||२१४||
तरी इयाविषयींचा कांहीं| तया एकुही संदेहो नाहीं| जैसा स्वप्नाच्या ठायीं| जागिन्नलिया ||२१५||
म्हणौनि कर्म आणि कर्ता| या द्वैतभावाची वार्ता| नेणें तो पंडुसुता| सात्विक त्यागु ||२१६||
ऐसेनि कर्में पार्था| त्यजिलीं त्यजिती सर्वथा | अधिकें बांधिती अन्यथा| सांडिलीं तरी ||२१७||
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ||११||
आणि हां गा सव्यसाची| मूर्ति लाहोनि देहाची| खंती करिती कर्माची| ते गांवढे गा ||२१८||
मृत्तिकेचा वीटु| घेऊनि काय करील घटु ? | केउता ताथु पटु| सांडील तो ? ||२१९||
तेवींचि वन्हित्व आंगीं| आणि उबे उबगणें आगी| कीं तो दीपु प्रभेलागीं| द्वेषु करील काई ? ||२२०||
हिंगु त्रासिला घाणी| तरी कैचें सुगंधत्व आणी ? | द्रवपण सांडूनि पाणी | कें राहे तें ? ||२२१||
तैसा शरीराचेनि आभासें| नांदतु जंव असे | तंव कर्मत्यागाचें पिसें| काइसें तरी ? ||२२२||
आपण लाविजे टिळा| म्हणौनि पुसों ये वेळोवेळा| मा घाली फेडी निडळा| कां करूं ये गा ? ||२२३||
तैसें विहित स्वयें आदरिलें| म्हणौनि त्यजूं ये त्यजिलें| परी कर्मचि देह आतलें| तें कां सांडील गा ? ||२२४||
जें श्वासोच्छ्वासवरी| होत निजेलियाहीवरी| कांहीं न करणेंयाचि परी| होती जयाची ||२२५||
या शरीराचेनि मिसकें| कर्मची लागलें असिकें| जितां मेलया न ठाके| इया रीती ||२२६||
यया कर्मातें सांडिती परी| एकीचि ते अवधारीं| जे करितां न जाइजे हारीं| फळशेचिये ||२२७||
कर्मफळ ईश्वरीं अर्पे| तत्प्रसादें बोधु उद्दीपें| तेथ रज्जुज्ञानें लोपे| व्याळशंका ||२२८||
तेणें आत्मबोधें तैसें| अविद्येसीं कर्म नाशे| पार्था त्यजिजे जैं ऐसें| तैं त्यजिलें होय ||२२९||
म्हणौनि इयापरी जगीं| कर्में करितां मानूं त्यागी| येर मुर्छने नांव रोगी| विसांवा जैसा ||२३०||
तैसा कर्मीं शिणे एकीं| तो विसांवो पाहे आणिकीं| दांडेयाचे घाय बुकी| धाडणें जैसें ||२३१||
परी हें असो पुढती| तोचि त्यागी त्रिजगतीं| जेणें फळत्यागें निष्कृती| नेलें कर्म ||२३२||
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ||१२||
येऱ्हवीं तरी धनंजया| त्रिविधा कर्मफळा गा यया| समर्थ ते कीं भोगावया| जे न सांडितीचि आशा ||२३३||
आपणचि विऊनि दुहिता| कीं न मम म्हणे पिता| तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता| जांवई शिरके ||२३४||
विषाचे आगरही वाहती| तें विकितां सुखें लाभे जिती| येर निमालें जे घेती| वेंचोनि मोलें ||२३५||
तैसें कर्ता कर्म करू| अकर्ता फळाशा न धरू| एथ न शके आवरूं| दोहींतें कर्म ||२३६||
वाटे पिकलिया रुखाचें| फळ अपेक्षी तयाचें| तेवीं साधारण कर्माचें| फळ घे तया ||२३७||
परी करूनि फळ नेघे| तो जगाच्या कामीं न रिघे| जे त्रिविध जग अवघें| कर्मफळ हें ||२३८||
देव मनुष्य स्थावर| यया नांव जगडंबर| आणि हे तंव तिन्ही प्रकार| कर्मफळांचे ||२३९||
तेंचि एक गा अनिष्ट| एक तें केवळ इष्ट| आणि एक इष्टानिष्ट| त्रिविध ऐसें ||२४०||
परी विषयमंतीं बुद्धी| आंगीं सूनि अविधी| प्रवर्तती जे निषिद्धीं| कुव्यापारीं ||२४१||
तेथ कृमि कीट लोष्ट| हे देह लाहती निकृष्ट| तया नाम तें अनिष्ट| कर्मफळ ||२४२||
कां स्वधर्मा मानु देतां| स्वाधिकारु पुढां सूतां| सुकृत कीजे पुसतां| आम्नायातें ||२४३||
तैं इंद्रादिक देवांचीं| देहें लाहिजती सव्यसाची| तया कर्मफळा इष्टाची| प्रसिद्धि गा ||२४४||
आणि गोड आंबट मिळे| तेथ रसांतर फरसाळें| उठी दोंही वेगळें| दोहीं जिणतें ||२४५||
रेचकुचि योगवशें| होय स्तंभावयादोषें| तेवीं सत्यासत्य समरसें| सत्यासत्यचि जिणिजे ||२४६||
म्हणौनि समभागें शुभाशुभें| मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें. तेणें मनुष्यत्व लाभे| तें मिश्र फळ ||२४७||
ऐसें त्रिविध यया भागीं| कर्मफळ मांडलेसें जगीं| हें न सांडी तयां भोगीं| जें सूदले आशा ||२४८||
जेथें जिव्हेचा हातु फांटे| तंव जेवितां वाटे गोमटें| मग परीणामीं शेवटें| अवश्य मरण ||२४९||
संवचोरमैत्री चांग| जंव न पविजे तें दांग| सामान्या भली आंग| न शिवे तंव ||२५०||
तैसीं कर्में करितां शरीरीं| लाहती महत्त्वाची फरारी| पाठीं निधनीं एकसरी| पावती फळें ||२५१||
तैसा समर्थु आणि ऋणिया| मागों आला बाइणिया| न लोटे तैसा प्राणिया| पडे तो भोगु ||२५२||
मग कणिसौनि कणु झडे| तो विरूढला कणिसा चढे| पुढती भूमी पडे| पुढती उठी ||२५३||
तैसें भोगीं जें फळ होय| तें फळांतरें वीत जाय| चालतां पावो पाय| जिणिजे जैसा ||२५४||
उताराचिये सांगडी| ठाके ते ऐलीच थडी| तेवीं न मुकीजती वोढी| भोग्याचिये ||२५५||
पैं साध्यसाधनप्रकारें| फळभोगु तो पसरे| एवं गोंविले संसारें| अत्यागी ते ||२५६||
येऱ्हवीं जाईचियां फुलां फांकणें| त्याचि नाम जैसें सुकणें| तैसें कर्ममिषें न करणें| केलें जिहीं ||२५७||
बीजचि वरोसि वेंचे| तेथ वाढती कुळवाडी खांचे| तेवीं फळत्यागें कर्माचें| सारिलें काम ||२५८||
ते सत्वशुद्धि साहाकारें| गुरुकृपामृततुषारें| सासिन्नलेनि बोधें वोसरे| द्वैतदैन्य ||२५९||
तेव्हां जगदाभासमिषें| स्फुरे तें त्रिविध फळ नाशे| एथ भोक्ता भोग्य आपैसें| निमालें हें ||२६०||
घडे ज्ञानप्रधानु हा ऐसा| संन्यासु जयां वीरेशा| तेचि फलभोग सोसा| मुकले गा ||२६१||
आणि येणें कीर संन्यासें| जैं आत्मरूपीं दिठी पैसे| तैं कर्म एक ऐसें | देखणें आहे ? ||२६२||
पडोनि गेलिया भिंती| चित्रांची केवळ होय माती| कां पाहालेया राती| आंधारें उरे ? ||२६३||
जैं रूपचि नाहीं उभें| तैं साउली काह्याची शोभे ? | दर्पणेवीण बिंबें| वदन कें पां ? ||२६४||
फिटलिया निद्रेचा ठावो| कैचा स्वप्नासि प्रस्तावो ? | मग साच का वावो| कोण म्हणे ? ||२६५||
तैसें गा संन्यासें येणें| मूळ अविद्येसीचि नाहीं जिणें| मा तियेचें कार्य कोणें| घेपे दीजे ? ||२६६||
म्हणौनि संन्यासी ये पाहीं| कर्माची गोठी कीजेल ख़ई | परी अविद्या आपुलाम् देहीं| आहे जै कां ||२६७||
जैं कर्तेपणाचेनि थांवें| आत्मा शुभाशुभीं धांवें| दृष्टि भेदाचिये राणिवे| रचलीसे जैं ||२६८||
तैं तरी गा सुवर्मा| बिजावळी आत्मया कर्मा| अपाडें जैसी पश्चिमा| पूर्वेसि कां ||२६९||
नातरी आकाशा का आभाळा| सूर्या आणि मृगजळा| बिजावळी भूतळा| वायूसि जैसी ||२७०||
पांघरौनि नईचें उदक| असे नईचिमाजीं खडक| परी जाणिजे का वेगळिक | कोडीची ते ||२७१||
हो कां उदकाजवळी| परी सिनानीचि ते बाबुळी| काय संगास्तव काजळी| दीपु म्हणों ये ? ||२७२||
जरी चंद्रीं जाला कलंकु| तरी चंद्रेसीं नव्हे एकु| आहे दृष्टी डोळ्यां विवेकु| अपाडु जेतुला ||२७३||
नाना वाटा वाटे जातया| वोघा वोघीं वाहातया| आरसा आरसां पाहातया| अपाडु जेतुला ||२७४||
पार्था गा तेतुलेनि मानें| आत्मेंनिसीं कर्म सिनें| परी घेवविजे अज्ञानें| तें कीर ऐसें ||२७५||
विकाशें रवीतें उपजवी| द्रुती अलीकरवी भोगवी| ते सरोवरीं कां बरवी | अब्जिनी जैसी ||२७६||
पुढतपुढती आत्मक्रिया| अन्यकारणकाचि तैशिया| करूं पांचांही तयां| कारणां रूप ||२७७||
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||१३||
आणि पांचही कारणें तियें| तूंही जाणसील विपायें| जें शास्त्रें उभऊनी बाहे| बोलती तयांते ||२७८||
वेदरायाचिया राजधानीं| सांख्यवेदांताच्या भुवनीं| निरूपणाच्या निशाणध्वनीं| गर्जती जियें ||२७९||
जें सर्वकर्मसिद्धीलागीं| इयेंचि मुद्दलें हो जगीं| तेथ न सुवावा अभंगीं| आत्मराजु ||२८०||
ह्या बोलाचि डांगुरटी| तियें प्रसिद्धीचि आली किरीटी| म्हणौनि तुझ्या हन कर्णपुटीं| वसों हें काज ||२८१||
आणि मुखांतरीं आइकिजे| तैसें कायसें हें ओझें| मी चिद्रत्न तुझें | असतां हातीं ||२८२||
दर्पणु पुढां मांडलेया| कां लोकांचियां डोळयां| मानु द्यावा पहावया| आपुलें निकें ||२८३||
भक्त जैसेनि जेथ पाहे| तेथ तें तेंचि होत जाये| तो मी तुझें जाहालों आहें| खेळणें आजी ||२८४||
ऐसें हें प्रीतीचेनि वेगें| देवो बोलतां से नेघे| तंव आनंदामाजीं आंगें| विरतसे येरु ||२८५||
चांदिणियाचा पडिभरु| होतां सोमकांताचा डोंगरु| विघरोनि सरोवरु| हों पाहे जैसा ||२८६||
तैसें सुख आणि अनुभूती| या भावांची मोडूनि भिंती| आतलें अर्जुनाकृति| सुखचि जेथ ||२८७||
तेथ समर्थु म्हणौनि देवा| अवकाशु जाहला आठवा| मग बुडतयाचा धांवा| जीवें केला ||२८८||
अर्जुना येसणें धेंडें| प्रज्ञा पसरेंसीं बुडे| आलें भरतें एवढें| तें काढूनि पुढती ||२८९||
देवो म्हणे हां गा पार्था| तूं आपणपें देख सर्वथा| तंव श्वासूनि येरें माथा| तुकियेला ||२९०||
म्हणे जाणसी दातारा| मी तुजशीं व्यक्तिशेजारा| उबगला आजी एकाहारा| येवों पाहें ||२९१||
तयाही हा ऐसा| लोभें देतसां जरी लालसा| तरी कां जी घालीतसां| आड आड जीवा ? ||२९२||
तेथ श्रीकृष्ण म्हणती निकें| अद्यापि नाहीं मा ठाऊकें| वेडया चंद्रा आणि चंद्रिके| न मिळणें आहे ? ||२९३||
आणि हाही बोलोनि भावो| तुज द्ॐ आम्ही भिवों| जे रुसतां बांधे थांवो| तें प्रेम गा हें ||२९४||
एथ एकमेकांचिये खुणें| विसंवादु तंवचि जिणें| म्हणौनि असो हें बोलणें| इयेविषयींचें ||२९५||
मग कैशी कैशी ते आतां | बोलत होतों पंडुसुता| सर्व कर्मा भिन्नता| आत्मेनिसीं ||२९६||
तंव अर्जुन म्हणे देवें| माझिये मनींचेंचि स्वभावें| प्रस्ताविलें बरवें| प्रमेय तें जी ||२९७||
जें सकळ कर्माचें बीज| कारणपंचक तुज| सांगेन ऐसी पैज| घेतली कां ||२९८||
आणि आत्मया एथ कांहीं| सर्वथा लागु नाहीं| हें पुढारलासि ते देईं| लाहाणें माझें ||२९९||
यया बोला विश्वेशें| म्हणितलें तोषें बहुवसे| इयेविषयीं धरणें बैसे. ऐसें कें जोडे ? ||३००||
तरी अर्जुना निरूपिजेल| तें कीर भाषेआंतुल| परी मेचु ये होईजेल| ऋणिया तुज ||३०१||
तंव अर्जुन म्हणे देवो| काई विसरले मागील भावो ? | इये गोंठीस कीं राखत आहों| मीतूंपण जी ? ||३०२||
एथ श्रीकृष्ण म्हणती हो कां| आतां अवधानाचा पसरु निका| करूनियां आइका| पुढारलों तें ||३०३||
तरी सत्यचि गा धनुर्धरा| सर्वकर्मांचा उभारा| होतसे बहिरबाहिरा| करणीं पांचें ||३०४||
आणि पांच कारण दळवाडें| जिहीं कर्माकारु मांडे| ते हेतुस्तव घडे| पांच आथी ||३०५||
येर आत्मतत्त्व उदासीन| तें ना हेतु ना उपादान| ना ते अंगें करी संवाहन| कर्मसिद्धीचें ||३०६||
तेथ शुभाशुभीं अंशीं| निफजती कर्में ऐसीं| राती दिवो आकाशीं| जियापरी ||३०७||
तोय तेज धूमु| ययां वायूसीं संगमु| जालिया होय अभ्रागमु| व्योम तें नेणें ||३०८||
नाना काष्ठीं नाव मिळे| ते नावाडेनि चळे| चालविजे अनिळें| उदक तें साक्षी ||३०९||
कां कवणे एकें पिंडे| वेंचितां अवतरे भांडें| मग भवंडीजे दंडें| भ्रमे चक्र ||३१०||
आणि कर्तृत्व कुलालाचें| तेथ काय तें पृथ्वीयेचें| आधारावांचूनि वेंचे| विचारीं पां ||३११||
हेंहि असो लोकांचिया| राहाटी होतां आघविया| कोण काम सवितया| आंगा आलें ? ||३१२||
तैसें पांचहेतुमिळणीं| पांचेंचि इहीं कारणीं| कीजे कर्मलतांची लावणी| आत्मा सिना ||३१३||
आतां तेंचि वेगळालीं| पांचही विवंचूं गा भलीं| तुकोनि घेतलीं| मोतियें जैसीं ||३१४||
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ||१४||
तैसीं यथा लक्षणें| आइकें कर्म- कारणें| तरी देह हें मी म्हणें| पहिलें एथ ||३१५||
ययातें अधिष्ठान ऐसें| म्हणिजे तें याचि उद्देशें| जे स्वभोग्येंसीं वसे| भोक्ता येथ ||३१६||
इंद्रियांच्या दाहें हातीं| जाचोनियां दिवोराती| सुखदुःखें प्रकृती| जोडीजती जियें ||३१७||
तियें भोगावया पुरुखा| आन ठावोचि नाहीं देखा| म्हणौनि अधिष्ठानभाखा| बोलिजे देह ||३१८||
हें चोविसांही तत्वांचें| कुटुंबघर वस्तीचें| तुटे बंधमोक्षाचें| गुंथाडे एथ ||३१९||
किंबहुना अवस्थात्रया| हें अधिष्ठान धनंजया| म्हणौनि देहा यया| हेंचि नाम ||३२०||
आणि कर्ता हें दुजें| कर्माचें कारण जाणिजे| प्रतिबिंब म्हणिजे| चैतन्याचें जें ||३२१||
आकाशचि वर्षे नीर| तें तळवटीं बांधे नाडर| मग बिंबोनि तदाकार| होय जेवीं ||३२२||
कां निद्राभरें बहुवें| राया आपणपें ठाउवें नव्हे| मग स्वप्नींचिये सामावे| रंकपणीं ||३२३||
तैसें आपुलेनि विसरें| चैतन्यचि देहाकारें| आभासोनि आविष्करें| देहपणें जें ||३२४||
जया विसराच्या देशीं| प्रसिद्धि गा जीवु ऐसी| जेणें भाष केली देहेंसी| आघवाविषयीं ||३२५||
प्रकृति करी कर्में| तीं म्यां केलीं म्हणे भ्रमें| येथ कर्ता येणें नामें| बोलिजे जीवु ||३२६||
मग पातेयांच्या केशीं| एकीच उठी दिठी जैसी| मोकळी चवरी ऐसी| चिरीव गमे ||३२७||
कां घराआंतुल एकु| दीपाचा तो अवलोकु| गवाक्षभेदें अनेकु| आवडे जेवीं ||३२८||
कां एकुचि पुरुषु जैसा| अनुसरत नवां रसां| नवविधु ऐसा| आवडों लागे ||३२९||
तेवीं बुद्धीचें एक जाणणें| श्रोत्रादिभेदें येणें| बाहेरी इंद्रियपणें| फांके जें कां ||३३०||
तें पृथग्विध करण| कर्माचें इया कारण| तिसरें गा जाण| नृपनंदना ||३३१||
आणि पूर्वपश्चिमवाहणीं| निघालिया वोघाचिया मिळणी| होय नदी नद पाणी| एकचि जेवीं ||३३२||
तैसी क्रियाशक्ति पवनीं| असे जे अनपायिनी| ते पडिली नानास्थानीं| नाना होय ||३३३||
जैं वाचे करी येणें| तैं तेंचि होय बोलणें| हाता आली तरी घेणें| देणें होय ||३३४||
अगा चरणाच्या ठायीं| तरी गति तेचि पाहीं| अधोद्वारीं दोहीं| क्षरणें तेचि ||३३५||
कंदौनि हृदयवरी| प्रणवाची उजरी| करितां तेचि शरीरीं| प्राणु म्हणिजे ||३३६||
मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा| पुढती तेचि शक्ति पैं गा| उदानु ऐसिया लिंगा| पात्र जाहली ||३३७||
अधोरंध्राचेनि वाहें| अपानु हें नाम लाहे| व्यापकपणें होये| व्यानु तेचि ||३३८||
आरोगिलेनि रसें| शरीर भरी सरिसें| आणि न सांडितां असे | सर्वसंधीं ||३३९||
ऐसिया इया राहटीं| मग तेचि क्रिया पाठीं| समान ऐसी किरीटी| बोलिजे गा ||३४०||
आणि जांभई शिंक ढेंकर| ऐसैसा होतसे व्यापार| नाग कूर्म कृकर| इत्यादि होय ||३४१||
एवं वायूची हे चेष्टा| एकीचि परी सुभटा| वर्तनास्तव पालटा| येतसे जे ||३४२||
तें भेदली वृत्तिपंथें| वायुशक्ति गा एथें| कर्मकारण चौथें| ऐसें जाण ||३४३||
आणि ऋतु बरवा शारदु| शारदीं पुढती चांदु| चंद्री जैसा संबंधु| पूर्णिमेचा ||३४४||
कां वसंतीं बरवा आरामु| आरामींही प्रियसंगमु | संगमीं आगमु. उपचारांचा ||३४५||
नाना कमळीं पांडवा| विकासु जैसा बरवा| विकासींही यावा| परागाचा ||३४६||
वाचे बरवें कवित्व| कवित्वीं बरवें रसिकत्व| रसिकत्वीं परतत्व| स्पर्शु जैसा ||३४७||
तैसी सर्ववृत्तिवैभवीं| बुद्धिचि एकली बरवी| बुद्धिही बरव नवी| इंद्रियप्रौढी ||३४८||
इंद्रियप्रौढीमंडळा| शृंगारु एकुचि निर्मळा| जैं अधिष्ठात्रियां कां मेळा| देवतांचा जो ||३४९||
म्हणौनि चक्षुरादिकीं दाहें| इंद्रियां पाठीं स्वानुग्रहें| सूर्यादिकां कां आहे| सुरांचें वृंद ||३५०||
तें देववृंद बरवें| कर्मकारण पांचवें| अर्जुना एथ जाणावें| देवो म्हणे ||३५१||
एवं माने तुझिये आयणी| तैसी कर्मजातांची हे खाणी| पंचविध आकर्णीं| निरूपिली ||३५२||
आतां हेचि खाणी वाढे| मग कर्माची सृष्टि घडे| जिहीं ते हेतुही उघडे| द्ॐ पांचै ||३५३||
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः |
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ||१५||
तरी अवसांत आली माधवी| ते हेतु होय नवपल्लवीं| पल्लव पुष्पपुंज दावी| पुष्प फळातें ||३५४||
कां वार्षिये आणिजे मेघु| मेघें वृष्टिप्रसंगु| वृष्टीस्तव भोगु| सस्यसुखाचा ||३५५||
नातरी प्राची अरुणातें विये| अरुणें सूर्योदयो होये| सूर्यें सगळा पाहे| दिवो जैसा ||३५६||
तैसें मन हेतु पांडवा| होय कर्मसंकल्पभावा| तो संकल्पु लावी दिवा| वाचेचा गा ||३५७||
मग वाचेचा तो दिवटा| दावी कृत्यजातांचिया वाटा| तेव्हां कर्ता रिगे कामठां | कर्तृत्वाच्या ||३५८||
तेथ शरीरादिक दळवाडें| शरीरादिकां हेतुचि घडे| लोहकाम लोखंडें| निर्वाळिजे जैसें ||३५९||
कां तांथुवाचा ताणा| तांथु घालितां वैरणा| तो तंतुचि विचक्षणा| होय पटु ||३६०||
तैसें मनवाचादेहाचें| कर्म मनादि हेतुचि रचे| रत्नीं घडे रत्नाचें| दळवाडें जेवीं ||३६१||
एथ शरीरादिकें कारणें| तेंचि हेतु केवीं हें कोणें| अपेक्षिजे तरी तेणें| अवधारिजो ||३६२||
आइका सूर्याचिया प्रकाशा| हेतु कारण सूर्युचि जैसा| कां ऊंसाचें कांडें ऊंसा| वाढी हेतु ||३६३||
नाना वाग्देवता वानावी| तैं वाचाचि लागे कामवावी| कां वेदां वेदेंचि बोलावी| प्रतिष्ठा जेवीं ||३६४||
तैसें कर्मा शरीरादिकें| कारण हें कीर ठाउकें| परी हेंचि हेतु न चुके| हेंही एथ ||३६५||
आणि देहादिकीं कारणीं| देहादि हेतु मिळणीं| होय जया उभारणी| कर्मजातां ||३६६||
तें शास्त्रार्थेंं मानिलेया| मार्गा अनुसरे धनंजया| तरी न्याय तो न्याया| हेतु होय ||३६७||
जैसा पर्जन्योदकाचा लोटु| विपायें धरी साळीचा पाटु| तो जिरे परी अचाटु| उपयोगु आथी ||३६८||
कां रोषें निघालें अवचटें| पडिलें द्वारकेचिया वाटे | तें शिणे परी सुनाटें| न वचिती पदें ||३६९||
तैसें हेतुकारण मेळें| उठी कर्म जें आंधळें| तें शास्त्राचें लाहे डोळे| तैं न्याय म्हणिपे ||३७०||
ना दूध वाढिता ठावो पावे| तंव उतोनि जाय स्वभावें| तोही वेंचु परी नव्हे| वेंचिलें तें ||३७१||
तैसें शास्त्रसाह्येंवीण| केलें नोहे जरी अकारण| तरी लागो कां नागवण| दानलेखीं ||३७२||
अगा बावन्ना वर्णांपरता| कोण मंत्रु आहे पंडुसुता| कां बावन्नही नुच्चारितां| जीवु आथी ? ||३७३||
परी मंत्राची कडसणी| जंव नेणिजे कोदंडपाणी| तंव उच्चारफळ वाणी| न पवे जेवीं ||३७४||
तेवीं कारणहेतुयोगें| जें बिसाट कर्म निगे| तें शास्त्राचिये न लगे| कांसे जंव ||३७५||
कर्म होतचि असे तेव्हांही| परी तें होणें नव्हे पाहीं| तो अन्यायो गा अन्यायीं| हेतु होय ||३७६||
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ||१६||
एवं पंचकारणा कर्मा| पांचही हेतु हे सुमहिमा| आतां एथें पाहें पां आत्मा| सांपडला असे ? ||३७७||
भानु न होनि रूपें जैसीं| चक्षुरूपातें प्रकाशी| आत्मा न होनि कर्में तैसीं| प्रकटित असे गा ||३७८||
पैं प्रतिबिंब आरिसा| दोन्ही न होनि वीरेशा| दोहींतें प्रकाशी जैसा| न्याहाळिता तो ||३७९||
कां अहोरात्र सविता| न होनि करी पंडुसुता| तैसा आत्मा कर्मकर्ता| न होनि दावी ||३८०||
परी देहाहंमान भुली| जयाची बुद्धि देहींचि आतली| तया आत्मविषयीं जाली| मध्यरात्री गा ||३८१||
जेणें चैतन्या ईश्वरा ब्रह्मा| देहचि केलें परमसीमा| तया आत्मा कर्ता हे प्रमा| अलोट उपजे ||३८२||
आत्माचि कर्मकर्ता| हाही निश्चयो नाहीं तत्वतां| देहोचि मी कर्मकर्ता| मानितो साचे ||३८३||
जे आत्मा मी कर्मातीतु| सर्वकर्मसाक्षिभूतु| हे आपुली कहीं मातु| नायकेचि कानीं ||३८४||
म्हणौनि उमपा आत्मयातें| देहचिवरी मविजे एथें| विचित्र काई रात्रि दिवसातें| डुडुळ न करी ? ||३८५||
पैं जेणें आकाशींचा कहीं| सत्य सूर्यु देखिला नाहीं| तो थिल्लरींचें बिंब काई| मानू न लाहे ? ||३८६||
थिल्लराचेनि जालेपणें| सूर्यासि आणी होणें| त्याच्या नाशीं नाशणें| कंपें कंपू ||३८७||
आणि निद्रिस्ता चेवो नये| तंव स्वप्न साच हों लाहे| रज्जु नेणतां सापा बिहे| विस्मो कवण ? ||३८८||
जंव कवळ आथि डोळां| तंव चंद्रु देखावा कींं पिंवळा| काय मृगींहीं मृगजळा| भाळावें नाहीं ? ||३८९||
तैसा शास्त्रगुरूचेनि नांवे| जो वाराही टेंकों नेदी सिवें| केवळ मौढ्याचेनिचि जीवें| जियाला जो ||३९०||
तेणें देहात्मदृष्टीमुळें| आत्मया घापे देहाचें जाळें| जैसा अभ्राचा वेगु कोल्हें| चंद्रीं मानीं ||३९१||
मग तया मानणयासाठीं| देहबंदीशाळे किरीटी| कर्माच्या वज्रगांठी| कळासे तो ||३९२||
पाहे पां बद्ध भावना दृढा| नळियेवरी तो बापुडा| काय मोकळेयाही पायाचा चवडा| न ठकेचि पुंसा ||३९३||
म्हणौनि निर्मळा आत्मस्वरूपीं| तो प्रकृतीचें केलें आरोपी| तो कल्पकोडीच्या मापीं| मवीचि कर्में ||३९४||
आता कर्मामाजीं असे | परी तयातें कर्&#